नई दिल्ली। सुप्रीम कोर्ट ने किरायेदारी संबंधों पर एक महत्वपूर्ण फैसला सुनाते हुए स्पष्ट किया है कि कोई भी किरायेदार, जो किसी संपत्ति में विधिवत किराए के समझौते के तहत रह रहा है, वह बाद में उस मकान मालिक के स्वामित्व अधिकार को चुनौती नहीं दे सकता। अदालत ने कहा कि ऐसा करना कानून के “डॉक्ट्रिन ऑफ एस्टॉपेल (Doctrine of Estoppel) के सिद्धांत के खिलाफ है यानी कोई व्यक्ति उस बात से पीछे नहीं हट सकता, जिसे उसने पहले मान लिया हो।
किरायेदार मकान मालिक के अधिकार को नहीं नकार सकता
सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि जब कोई व्यक्ति किरायेदारी अनुबंध (Rent Deed) पर हस्ताक्षर करता है, तो वह यह स्वीकार करता है कि मकान मालिक वास्तव में संपत्ति का स्वामी है। बाद में, चाहे वर्षों बीत जाएं, किरायेदार यह दावा नहीं कर सकता कि जिस व्यक्ति से उसने मकान किराए पर लिया था, वह असली मालिक नहीं है। अदालत ने कहा कि यह कदम कानून की दृष्टि में अमान्य है और इसे रोकने के लिए डॉक्ट्रिन ऑफ एस्टॉपेल लागू होती है।
उदाहरण देते हुए न्यायालय ने कहा, अगर कोई व्यक्ति किसी मकान में किराए पर रहने जाता है और रेंट डीड पर साइन करता है, तो वह मान लेता है कि मकान मालिक वही व्यक्ति है जिसने उसे किराए पर दिया। लेकिन वह बाद में जाकर यह नहीं कह सकता कि मकान का मालिक कोई और है।
ज्योति शर्मा बनाम विष्णु गोयल’ केस में सुनाया गया फैसला
यह फैसला ज्योति शर्मा बनाम विष्णु गोयल (2025 INSC 1099) मामले में सुनाया गया है, जिसे अब आने वाले समान मामलों में एक कानूनी नजीर (precedent) के रूप में माना जाएगा। सुप्रीम कोर्ट ने किरायेदार के खिलाफ निर्णय सुनाते हुए मकान मालिक को संपत्ति का कब्जा वापस दिलाने और जनवरी 2000 से बकाया किराए की वसूली का आदेश दिया।
सुप्रीम कोर्ट ने दी कई कानूनी स्पष्टताएँ
1. किरायेदार मालिकाना हक पर सवाल नहीं उठा सकता:
कोर्ट ने कहा कि जब किरायेदार के परिवार ने 50 से अधिक वर्षों तक मूल मालिक को किराया दिया है, तो अब वह यह नहीं कह सकता कि मालिकाना हक किसी और का है। यहां तक कि ‘रिलिंक्विशमेंट डीड’ (अधिकार त्याग दस्तावेज़) से भी यह स्पष्ट है कि संपत्ति का स्वामित्व मूल मालिक के पास ही है।
2. मालिकाना हक के प्रमाण की सीमा:
अदालत ने स्पष्ट किया कि किरायेदार को बेदखल करने के मामलों में मालिकाना हक के सबूत की जांच उतनी कठोरता से नहीं की जाती, जितनी किसी स्वामित्व विवाद के मुकदमे में होती है। यह समझना जरूरी है कि किराया संबंधी मुकदमे में उद्देश्य केवल किरायेदारी की वैधता और स्वामित्व की सामान्य पुष्टि तक सीमित होता है।
3. वसीयत (Will) की वैधता पर स्पष्टता:
सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि मकान मालिक के पक्ष में दी गई वसीयत (Will) को न्यायिक मंजूरी (Probate) मिल चुकी थी, इसलिए हाईकोर्ट को इसे अनदेखा नहीं करना चाहिए था। यह वसीयत संपत्ति के स्वामित्व को कानूनी रूप से पुष्ट करती है।
4. मकान मालिक की वाजिब आवश्यकता सही मानी गई:
मकान मालिक ने यह तर्क दिया था कि उन्हें अपने पति के मिठाई और नमकीन के व्यवसाय को बढ़ाने के लिए संबंधित दुकान की जरूरत है। सुप्रीम कोर्ट ने इस दलील को उचित ठहराया और कहा कि यह “वाजिब आवश्यकता” के अंतर्गत आती है।
निचली अदालतों के आदेश हुए रद्द
सुप्रीम कोर्ट ने निचली अदालतों और हाईकोर्ट के उन सभी आदेशों को निरस्त कर दिया जो मकान मालिक के खिलाफ दिए गए थे। अदालत ने साफ निर्देश दिया कि किरायेदार न केवल जनवरी 2000 से बकाया किराया अदा करे, बल्कि किराए में चूक और मकान मालिक की वाजिब जरूरत के आधार पर संपत्ति को खाली करे।
कानूनी महत्व
यह फैसला देशभर में मकान मालिकों और किरायेदारों के लिए एक महत्वपूर्ण नजीर साबित होगा। अदालत ने यह भी संकेत दिया कि किरायेदारी का रिश्ता आपसी विश्वास पर आधारित होता है, और जब कोई व्यक्ति इस संबंध में प्रवेश करता है, तो वह मालिक के अधिकार को बाद में चुनौती नहीं दे सकता।
इस निर्णय से किरायेदारी विवादों में स्पष्टता आएगी और लंबे समय से चल रहे ऐसे मामलों में कानूनी स्थिति और मजबूत होगी।








